Wednesday, April 16, 2014

खंडहर

वहां एक बड़ा मैदान था, शायद कोई stadium था या कुछ और... मुझे ठीक से याद नहीं।  लेकिन ये अच्छी तरह याद है कि उसने कत्थई रंग के कपडे पहन रखे थे। असल में वो मुझे कुछ समझाने आई थी। शायद किसी बात से बहुत परेशान था मैं और वो मुझे बताने आई थी कि यूं परेशान होना बेकार है। हालाँकि मैं उससे पहली बार मिला था, लेकिन वो जिस तरह से देख रही थी मेरी तरफ, लगता था जैसे सब जानती है मेरे बारे में और सब समझती है कि क्या-क्या चल रहा है मेरे अंदर। उसका वो देखना ही सबसे खास लगा था मुझे।

वैसे तो हम अलग-अलग शहरों में रहते थे या शायद अलग-अलग  दुनियाओं में, लेकिन मेरे और उसके बीच जो कुछ भी पैदा हुआ, वो जल्द ही हमारी मुस्कुराहटों और बातों से होते हुए बिस्तर तक और फिर एक-दूसरे की ज़िंदगियों में दाखिल हो गया। अब हमारे ठहाके एक जैसे ही थे और हम दोनों के लिए वो सबसे खूबसूरत वक्त था।
लेकिन फिर अचानक कुछ ऐसा हुआ कि उसका सारा भरोसा एक भ्रम में बदल गया और जहाँ तक मुझे पता है, भ्रम का कोई इलाज़ अब तक कहीं नहीं ढूंढा जा सका है। अचानक ही मैं उसके लिए जैसे कोई अजनबी हो गया। उसे लगने लगा कि हमेशा की तरह एक बार फिर उससे इंसान को पहचानने में गलती हो गई है। 

इधर
मैं एक बड़ी और आलीशान building के अंदर था और वहां अपनी जगह तलाशने में लगा हुआ था। जब तक मैं उस building के बाहर था, लगता था जैसे मेरी ज़िंदगी के सारे मतलब उसी के अंदर छुपे हुए हैं, लेकिन अंदर आने के बाद पता चला कि ये तो एक भूल-भुलैया है, जहाँ ढेरों ज़िंदगियाँ अपना-अपना मतलब ढूंढने के भ्रम में जी रही हैं और जैसा कि हर भूल-भुलैया का नियम होता है, बाहर निकलने का रास्ता भी खुद ही ढूंढना होता है। मैं ये बात बहुत जल्दी समझ गया था, लेकिन मैंने बाहर निकलने की कोशिश में अपना वक्त बर्बाद करने के बजाय ऊपर चढ़ना तय किया, क्योंकि अगर किसी भूल-भुलैया को आप ऊंचाई से देखें तो उसके सारे रहस्य आपकी मुट्ठी में जाते हैं और फिर वो आपके लिए एक मज़ेदार खेल बन जाती है। इस खेल को जीतने का सिर्फ यही एक तरीका है, हाँ हारने के तरीके हज़ारों हैं और इससे बाहर निकल जाना, उन्हीं हज़ारों तरीकों में से एक है।
मैंने वहां बनी सीढ़ियों पर चढ़ना शुरू किया। ये सीढ़ियां लोहे की बनी हुई थीं और बहुत संकरी थीं। सबसे डरावनी बात ये थी कि ये जितना ऊपर जा रही थीं, उतनी ही संकरी होती चली जा रही थीं। इनमें मेरा पैर कभी भी फंस सकता था और अगर ऐसा होता, तो मैं सर के बल नीचे गिरता और फिर जाने क्या होता। इसीलिए मैं धीरे-धीरे चढ़ रहा था, लेकिन तभी मेरा डर सच हो गया। असल में सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते मेरा फोन हाथ से छूटकर नीचे गिर गया और उसे उठाने के लिए जैसे ही मैंने मुड़कर उतरना चाहा, मेरा पैर उन संकरी सीढ़ियों में फंस गया और मैं लड़खड़ा कर नीचे गिरा। इसके बाद मुझे कुछ याद नहीं कि क्या हुआ। 

जब होश आया और आँखें खुलीं तो सब कुछ धुंधला-धुंधला सा दिख रहा था। मेरा फ़ोन थोड़ी ही दूरी पर तीन-चार टुकड़ों में टूटा पड़ा था। मैंने उठने की कोशिश की तो पीठ में जानलेवा दर्द हुआ। शायद रीढ़ की हड्डी में गहरी चोट आई थी। मुझे लगा कि अब मैं कभी उठ नहीं पाउँगा, कभी किसी चीज़ का सामना नहीं कर पाउँगा। ऐसी लाचारी से मुझे हमेशा घिन रही है, क्योंकि मेरा ego बहुत बड़ा है और दूसरों से मदद लेना कभी गवारा नहीं रहा मैंने फिर से उठने की कोशिश की, लेकिन दर्द इतना जानलेवा है कि इस वक़्त जैसे सब कुछ नामुमकिन सा हो गया है। मुझे डर है कि मेरी सारी कोशिशें बेकार चली जाएँगी और फिर मुझमें एक और कोशिश करने की हिम्मत नहीं बचेगी।
तभी अचानक सब कुछ आसान हो जाता है। मैंने देखा कि वहां तीन साए  गए हैं। इन्होंने ही मुझे पैदा किया था और इन्हीं के साथ मैं बड़ा हुआ था। पता नहीं ये यहाँ कैसे गए, पता नहीं इन्हें किसने बताया कि मैं यहाँ अपनी टूटी हुई रीढ़ के साथ पड़ा हूँ और सब कुछ हारा जा रहा हूँ। हमेशा यही होता है, जब भी मैं कमज़ोर पड़ता हूँ, ये तीन साए  जाते हैं और मेरी हिम्मत फिर जाग जाती है। आखिरकार वो तीनो मेरी तरफ अपना हाथ बढ़ाते हैं और उनकी मदद से मैं किसी तरह उठ जाता हूँ। इसके बाद वो सब अचानक गायब हो जाते हैं, शायद वो मेरी ज़िंदगी में ज्यादा दखल देना नहीं चाहते। हालाँकि मेरी रीढ़ में अब भी भयानक दर्द हो रहा है, लेकिन गनीमत है कि मैं अपने पैरों पर खड़ा हूँ।

खैर, मैं दो कदम आगे बढ़ा और बड़ी मुश्किल से झुककर ज़मीन पर टूटे पड़े अपने फ़ोन को उठाया लेकिन इसके बाद अचानक ही मैंने खुद को उस building के बाहर पाया। पता नहीं कैसे, लेकिन अब मैं उस भूल-भुलैया से बाहर चुका था। जबकि मैं तो सारी सीढ़ियां पार करके उस ऊंचाई पर जाना चाहता था। मुझे समझ नहीं रहा कि ऐसा कैसे हुआ। लेकिन मैं मानूंगा नहीं, चाहे जो हो जाये, मैं फिर इस building के अंदर जाऊंगा। मुझे किसी भी हाल में उस ऊंचाई पर जाना है, जहाँ से ये भूल-भुलैया एक आसान सा खेल बन जाएगी और इसके सारे remote controls मेरे हाथ में होंगे।

लेकिन इसके पहले मुझे एक ज़रूरी काम करना हैमेरी ज़िंदगी का सबसे ज़रूरी काम। मुझे उससे बात करनी है और उसे बताना है कि मुझे बस उसके साथ रहना है हमेशाबारिश में भीगते हुएबिलकुल वैसे ही जैसे आखिरी बार उसकी ज़िद पर हम समंदर किनारे बारिश में भीगे थे।

रीढ़ की चोट के कारण मैं बहुत कमजोर महसूस कर रहा हूँ, इसलिए एक सिगरेट जला लेता हूँ और आगे बढ़ता हूँ, ताकि अपना फ़ोन ठीक करवाकर उसे कॉल कर सकूँ, लेकिन शायद तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

मैंने अपने सामने कुछ ऐसा देखा कि लगा जैसे सारी बारिशें झूठी निकलीं और झूठी बारिश में किसी के साथ भीगना सिर्फ फिल्मों के सेट पर होता है, नकली और बेकार। मैंने देखा कि थोड़ी ही दूरी पर एक bike के पास actor सुशांत सिंह राजपूत खड़ा हुआ है और वो उसकी गोद में चढ़कर उससे लिपटी हुए है, लेकिन ये किसी फिल्म का सेट नहीं है, हकीकत है। दोनों ने कुछ भी नहीं पहन रखा है और वो आँखों में आँखें गड़ाए एक-दूसरे में डूबे हुए हैं। 

खैर, देर से ही सही पर आखिरकार मुझे समझ गया है कि अब उसे फ़ोन करने का या यहाँ रुकने का कोई मतलब नहीं है, इसलिए मैं एक auto ढूढ़ने लगता हूँ, अब मैं बस जल्द से जल्द घर पहुंचना चाहता हूँ।

लेकिन तभी अचानक वो मेरी तरफ देखती है, उसका यूं देखना पहचानता हूँ मैं। यही तो है, जो पहली बार ख़ास लगा था मुझे, लेकिन इस वक्त उसके देखने में एक किस्म की हिक़ारत है, जैसे मुझे बेइज़्ज़त करना चाहती हो, जैसे मेरे सामने कुछ साबित करना चाहती हो, जैसे मुझसे कहना चाहती हो कि किसी गुमान में मत रहना, समझे। मुझे समझ  नहीं आता कि उसे मेरे सामने आखिर क्या साबित करना है।

कुछ देर पहले तक मैं उससे बात करना चाहता था, उसे बताना चाहता था कि अगर वो चाहे, तो हम बहुत दूर तक साथ चल सकते हैं, शायद इस दुनिया के आखिरी छोर तक। लेकिन अब नहीं. अब सब खत्म हो चुका है, अब उसकी दिलचस्पी उस actor में है, जो सारे dialoguरट कर आया है, फिर भले ही वो उसके अपने dialogue ना हों और उन्हें बिना चेहरे वाले किसी writer ने लिखा हो।

मैं फिर से auto ढूंढने लगता हूँ, मुझे बस अपने घर जाना है।