Saturday, June 18, 2011

डायरी

11:50 PM, 28/MAY/2011

डायरी,
आज 28 मई है, उसकी मौत को पूरा एक साल हो गया आज. 6 साल की थी उस वक्त वो. अचानक ही हुई थी उसकी मौत, कोई बीमारी नहीं थी उसे, बस एक दिन अचानक उसके स्कूल से फ़ोन आया, उसकी मम्मी ने उठाया, मैं तो उस वक्त ऑफिस में था, बताया गया कि वो बेंच पर बैठे बैठे ही बेहोश हो गई, हम दोनों किसी तरह भागे-भागे स्कूल पहुंचे, तब भी वो बेहोश ही थी, उसे हॉस्पिटल लेकर गए, लेकिन डॉक्टर ने 8-10 मिनट में ही कह दिया कि she is no more. बाद में पता चला कि हॉस्पिटल पहुँचने से पहले ही उसकी जान निकल चुकी थी. हम दोनों ये समझ ही नहीं पाए कि स्कूल से हॉस्पिटल के रास्ते किस पल वो हमें छोड़ के चली गई.
15 अगस्त को उसका बर्थ डे आने वाला था. हम दोनों उसे प्यार से बेटू कहा करते थे. हमारी बेटू.
कहने को तो एक साल हो गया उसे गए, लेकिन मुझे आज भी लगता है कि एक दिन जब मैं ऑफिस से लौट के घर की कॉल बेल बजाऊंगा तो वो अपने विडियोगेम का रिमोट हाथ में लिए दरवाज़ा खोलेगी, और फिर जिद करके मुझे अपने पास बिठा लेगी, कि नहीं... नहीं...नहीं आप भी मेरे साथ खेलो ना पापा... प्लीज़.
कई बार सोचता हूँ, कि आखिर ऐसा क्या हुआ था उसे, जो अचानक कुछ ही मिनटों में सब खत्म हो गया. डॉक्टर ने बताया था कि मौत दिल की धड़कन रुकने से हुई थी, लेकिन क्या 6 साल की छोटी सी बच्ची की मौत की ये वजह झूठ नहीं लगती?
सोचा था कि अच्छे से अच्छे डॉक्टर से बात करूंगा, पर उसकी मौत की सच्ची वजह पता कर के रहूँगा... लेकिन एक दो डॉक्टर्स से मिलने के बाद ही लगने लगा, कि मैं उनका और अपना दोनों का वक्त ज़ाया कर रहा हूँ. 
वैसे भी, अगर कोई डॉक्टर सही वजह बता भी देता तो क्या फर्क पड़ जाता? बेटू वापस तो नहीं आ जाती? अब तो उसकी मम्मी ने भी मान लिया है कि शायद दिल की धड़कन ही रुकी होगी, या शायद हम दोनों ने. 
उसके पीले रंग के वो जूते हमने अब भी सम्हाल के रखे हैं, उसे बहुत पसंद थे वो. नीचे वाले फ्लैट के डॉ. सहाय की बेटी मीनू के जूते देख कर उसने जिद पकड़ ली थी, कि उसे भी बिकुल वैसे ही चाहिए, और जब मैं उसे लेकर बाज़ार गया, तो मीनू के जूते भूल कर उसने ख़ुशी-ख़ुशी अपने लिए ये पीले जूते पसंद कर लिए. 
फिर वो हर वक्त इन्हें ही पहने रहती, यहाँ तक कि रात को बिस्तर पर जाते वक्त भी नहीं उतारती, फिर जब उसकी आँख लग जाती, तो मैं चुपचाप उन्हें उतारता था. दिन भर जूते पहने रहने के कारण उसके पंजों में कुछ देर के लिए निशान से पड़ जाते, मैं उन्हें सहलाते हुए दूर करता. 
जब वो मेरी किसी चीज़ से बहुत खुश हो जाती तो कहती कि बड़ी होकर वो मुझसे ही शादी करेगी, इस बात पर उसकी मम्मी उसे चिढाया करती कि जब तक वो बड़ी होगी, तब तक तो पापा बुड्ढे हो जायेंगे, और फिर उसे बुड्ढे पापा से शादी करनी पड़ेगी. इस बात पर वो बहुत नाराज़ हो जाती और तब तक नहीं मानती, जब तक उसे उसका फेवरेट ऑरेंज जैम जी भर कर खाने की इजाज़त न मिल जाए. हमें इस तरह ब्लैकमेल करना उसे खूब आता था. 
मुझे याद है, एक बार उसने मुझसे पूछा था कि पापा आप सहाय अंकल की तरह दोपहर में ही घर क्यों नहीं लौट आते? मैंने उसे समझाया कि बेटू पापा को ऑफिस में बहुत काम करना पड़ता है, बस इसीलिए. ये सुनकर उसने हाँ में सिर ज़रूर हिलाया था पर शायद मेरी बात का मतलब वो समझ नहीं पाई थी, अपनी मम्मी से भी वो यही शिकायत करती कि पापा जल्दी घर नहीं आते. 
अब सोचता हूँ कि काश मैंने उसे कुछ और वक्त दिया होता... काश उसके साथ रोज़ विडियो गेम खेला होता...
वैसे अब उसे याद करते हुए मुझे रोना नहीं आता, बस कुछ पलों के लिए एक खालीपन सा उभर आता है....... नहीं... नहीं...नहीं आप भी मेरे साथ खेलो ना पापा... प्लीज़.

Friday, June 17, 2011

मन हल्का करने वाली चीज़


शाम के 7.30  बज रहे हैं, मैं अभी-अभी office से निकला हूँ और बहुत भूखा हूँ, जल्दी-जल्दी 7 number stop पहुँचता हूँ, मसालेदार आलू, cheese, और तवे पर गर्म होते butter की खुशबू से महक सा जाता हूँ. Sagar Gaire Fast food Corner. 
लोग Sandwich खरीदने के लिए Q में खड़े हैं, लड़के, लडकियां, बच्चे सब, मैं भी हाथ में prepayment की रसीद लिए उनके साथ Q में हूँ. एक बड़े से तवे पर उसने ढेर सारा butter फैला रखा है. उस पर 12-15 sandwich तैयार हो रहे हैं, तीन bread slices के बीच में भरा हुआ cheese और मसालेदार mashed आलू बाहर झाँक रहा है.
लोग बिलकुल तैयार खड़े हैं, इंतज़ार करना मुश्किल हुआ जा रहा है. कुछ का सब्र जवाब दे रहा है... 'भैया जल्दी करो, कितनी देर से खड़े हैं यार'
लेकिन वो किसी की आवाज़ पर ध्यान नहीं देता और किसी जुनूनी साधु की तरह sandwich बनाने की अपनी तपस्या में डूबा रहता है, 
अब वो तैयार हो चुके sandwiches को एक-एक कर के बगल में खड़े अपने साथी के सामने रख रहा है, जो उनमे फटाफट एक-एक cheese slice लगाने में जुटा है, उस बन्दे मे गज़ब की फुर्ती है, वो पन्नी में लिपटी cheese slices को एक ख़ास लय में इतनी तेज़ी से और इतनी महारथ के साथ बाहर निकाल रहा है, जैसे उसने इसका कोई course कर रखा हो. 
वो एक-एक करके पूछता जाता है, pack करना है??? खाना है??? उसके हाथ अभी भी उतनी ही तेज़ी से चल रहे हैं, वो एक बड़े से चाक़ू से sandwich के दो टुकड़े करता जाता है और pack करवाने आए लोगो को पहले देता है. जिन्हें pack नहीं कराना है, बल्कि यहीं खाना है, वो कुढ़े जा रहे हैं, मैं भी उनमे से एक हूँ.
आख़िरकार चांदी की तरह चमकती paper plate पर रखा कोई बारहवां-तेरहवां sandwich मेरे हिस्से आता है, उसे हाथ में लेकर पल भर के लिए मैं किसी सम्राट जैसा महसूस करता हूँ, जैसे दुनिया जीत ली हो, 
कुछ लोगो को अब भी इंतज़ार करना पड़ेगा, क्योकि तवा खाली हो चुका है. ये लोग बडबडाने  लगते हैं... 'क्या यार'... 'अब फिर उतना टाइम'... 'मैं पहले से खड़ा हूँ यार'... 'हद है'... 'मेरे चार थे फिर भी'....
बारह- पंद्रह sandwiches की अगली खेप तवे पर तैयार होने आ गई है. 
मैं वहां से आगे बढ़ के अपने sandwich को खाने के लिए हाथ में उठाता हूँ, उसकी करारी सतह दब कर खुल जाती है और cheese slice बाहर plate पर गिरने लगती है, मैं आराम से उसे सम्हालता हूँ और स्वाद लेना शुरू करता हूँ. tomato sauce, butter, bread, cheese, आलू, हरी चटनी, सब पूरी एकता के साथ एक plate पर हैं. 
जीभ और मन दोनों खुश हो रहे हैं. लग रहा है जैसे जी भर के रोने के बाद कोई मन हल्का करने वाली चीज़ खाई हो. ये sandwich सचमुच इस शहर की सबसे अच्छी चीज़ों में से एक है. 
सागर गैरे ने अपना धर्म निभा दिया है.