Thursday, February 2, 2012

कोरे ख़याल के सिवा कुछ नहीं

इसकी शुरुआत कब और कैसे हुई, ये तो याद नहीं, पर जितना याद है उसके हिसाब से, शायद मेरी उससे फोन पर बात हुई थी और हमने तय किया था कि हम वहीँ मिलेंगे, उसी जगह, उसी १० बाई १२ के कमरे में, जहाँ हम दोनों ने पहली बार जाना था कि दुनिया सिर्फ तभी खूबसूरत नहीं होती, जब बारिश के बाद सारी ज़मीने हरी हो जाती हैं.
ये भोपाल की बात है... हाँ भोपाल की ही बात है... लेकिन उससे फ़ोन पर मिलने की बात करके जब मैं घर लौटा तो देखा कि वो भोपाल नहीं, मेरा छतरपुर वाला घर है. वही घर जिसके पोर्च में अपने दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलते खेलते मैं गर्मियों की पूरी छुट्टियाँ बिता दिया करता था... जहाँ मैं पापा की बाइक को इसलिए थोडा दूर पार्क कर देता था, कि गेंद लगने से कहीं उसके शीशे न टूट जाएँ.
उस दिन भी पापा से मेरी बात बाइक के बारे में ही हुई थी. शाम का वक्त था, मुझे उससे मिलने जाना था. पापा ने हमेशा की तरह मुझसे पूछा... कहीं जा रहे हो क्या? जिसका मतलब मुझे हमेशा यही समझ आया कि शायद वे खुद कहीं जाने वाले हैं. मैंने जवाब दिया, नहीं, नहीं आप बाइक ले जाइये, मुझे तो बस यहीं सड़क तक जाना है. पता नहीं उस वक्त मुझे ये याद क्यों नहीं आया कि उससे मिलने मुझे यहाँ से भोपाल जाना होगा, और भोपाल किसी अगली सड़क का नाम नहीं है.
जब मैं उससे मिलने के लिए घर से निकला तो बाहर दरवाजे पर ही एक बच्चा मिला, उसने मुझसे पूछा, घुमाने नहीं ले जाओगे? मैं बच्चों के किसी झंझट में नहीं पड़ना चाहता था, मैंने ये कहकर उसे टाल दिया कि मेरे पापा के साथ चले जाओ, उनके पास बाइक भी है. लेकिन शायद वो मेरे साथ जाने की इच्छा से ही पैदा हुआ था, इसलिए मेरी बात सुनकर वो उसी तरह मुस्कुराया जैसे कुछ अधेड़ लोग बिना ख़ुशी के मुस्कुराते हैं, मजबूरी में.
खैर मैं उसे छोड़ के आगे बढ़ गया. इसके बाद मैंने खुद को सीधे भोपाल में पाया, उसी कालोनी में, जहाँ के एक घर की तीसरी मंजिल पर वो १० बाई १२ का कमरा था. मैं उसकी उस काली स्कूटी पर पीछे बैठा था, और वो ड्राइव कर रही थी. हालाँकि ऐसा बहुत कम ही होता था कि जब हम दोनों साथ हों तो वो खुद ड्राइव करे. वो कहा करती थी, मैं तो आराम से पीछे बैठूंगी, अपनी आँखें बंद करके, तुमसे टिककर. शायद ऐसा कहते वक्त उसे ये भ्रम होता था कि मैं उसे अपने साथ बहुत दूर तक ले जाऊंगा. मैं भी उसकी ये बात मान लेता था, शायद मेरे और उसके भ्रम एक जैसे ही थे.
वो ड्राइव कर रही थी और सड़क के अगले मोड़ के बाद वो रेलवे ओवरपास आने वाला था. जिसके नीचे से गुजरते वक्त सारी आवाजें गूंजने लगती थीं और मैं उससे मज़ाक में कहता था कि सोचो अगर ट्रेन के गुज़रते वक्त ये ओवरपास टूट जाये तो क्या हो, कालोनी के सारे घरों पर पलटी हुई ट्रेन के डिब्बे लदे होंगे, जैसे किसी डिजास्टर फिल्म का पहला या अंतिम शाट हो. इस पर उसका जवाब क्या होता था, मुझे याद नहीं आ रहा.
लेकिन हम उस ओवरपास तक पहुँच ही नहीं पाए, उसके पहले ही हमारी स्कूटी किसी से टकरा गई. पता नहीं वो ठीक से ड्राइव नहीं कर पा रही थी, या फिर सड़क पर कुछ ज्यादा ही गढढे थे. स्कूटी जिस आदमी से टकराई थी, वो ज़मीन पर गिर पड़ा था. हालाँकि टक्कर इतनी हलकी थी कि किसी को चोट लगने का सवाल ही पैदा नहीं होता था. फिर भी वो ऐसे कराह रहा था, मानो जिंदगी भर की सारी चोटें उसे आज ही लगी हों. मैंने स्कूटी से उतरकर उसे उठाया, उसके कपड़ो की धूल झाडी और उससे माफ़ी मांगी. पर वो भड़क गया और मुझे घूरते हुए धमकी दी... देख लूँगा मैं उसे, जानता हूँ मैं, किसी अखबार में काम करती है वो. अब भड़कने की बारी मेरी थी. मैंने उसकी कालर पकड़ ली. वैसे ही जैसे सारे सिविलाइज्ड लोग किसी को डराने के मकसद से किया करते हैं. मैंने देखा कि इसके बाद वो ठंडा पड़ गया और कुछ नहीं बोला. मैंने ये भी देखा कि इस दौरान वो अपनी स्कूटी लेकर वहां से चली गई.
इसके अगले ही पल मैंने खुद को फिर छतरपुर वाले घर के बाहर पाया. वही घर जिसके अन्दर की ठंडी हवा में बैठकर दादी दिन भर चिल्लाती थीं कि... अरे नालायकों, इतनी धूप में क्रिकेट मत खेलो, तबियत ख़राब हो जाएगी.
लेकिन मैं घर के अन्दर नहीं गया, मुझे उससे पूछना था कि आखिर वो ऐसे अचानक क्यों चली गई. मुझे डर था कि अब शायद मैं कभी दोबारा उससे मिल नहीं पाउँगा. पर जाने क्यों मुझे ये भी लगता था कि अगर मैं उससे एक बार ठीक से बात कर लूं तो शायद हम फिर मिल सकें, उसी कमरे में, जो बस १० बाई १२ का था और जहाँ हमने एक-दूसरे को पूरा किया था.
इसलिए मेरा उससे बात करना बहुत ज़रूरी था. मैंने जेब से अपना फ़ोन निकाला. लेकिन आजकल मेरा फ़ोन ठीक से काम नहीं कर रहा है, उसकी स्क्रीन की सेंस्टिविटी कुछ बिगड़ गई है, मैं फ़ोनबुक में उसका नंबर ढून्ढना चाहता हूँ, लेकिन वो मिल नहीं रहा. अजीब बात ये है कि मुझे उसका नंबर याद भी नहीं आ रहा. जबकि अपने नंबर के अलावा सिर्फ एक उसी का नंबर था जो मुझे याद हुआ करता था.
मैं परेशान हो चुका हूँ और इतना हडबड़ाया हुआ हूँ कि मुझे पसीना आ रहा है. मुझे अच्छी तरह पता है कि अगर मैंने उसे अभी फ़ोन नहीं किया तो फिर सब ख़तम हो जायेगा. न वो कमरा बचेगा और न हरी ज़मीनों के पार कुछ दिखाई देगा.
मैं अपने फ़ोन को खोलकर सिमकार्ड बाहर निकाल लेता हूँ. हाँ, मुझे पता है कि फ़ोन को सुधारने का ये कोई तरीका नहीं है, लेकिन अभी मेरे पास कोई और तरीका है ही कहाँ.
मैंने देखा कि वहां से थोड़ी ही दूर एक दुकान है, शायद वहां मेरा फोन सुधर सकता है. पसीने से नहाया मैं दौड़ते हुए उस दुकान तक पहुंचा, पर वहां मोबाइल रिपेयर नहीं होते थे. वो एक पीसीओ था. मुझे याद आया कि सालों पहले जब हमारे घर में लैंडलाइन फ़ोन नहीं था और मोबाइल को हमने बस आशीष विद्यार्थी के सीरिअल 'दास्तान' में देखा था, उस वक्त मैं कभी कभी इस पीसीओ में कोई ज़रूरी कॉल करने आता था.
खैर, मैं पीसीओ के अन्दर गया, लेकिन वहां काफी भीड़ थी, मैंने अपने आगे खड़े आदमी से कहा, भाई साहब मुझे बहुत ज़रूरी फ़ोन करना है, प्लीज़...! उसने फ़ोन मेरी तरफ बढाया और धीमे से बोला, हाँ कर लो, बड़े दिनों बाद आये हो. मैंने उसका चेहरा देखा, जो काफी जाना पहचाना था, लेकिन मुझे उसका नाम याद नहीं आया.
आखिरकार मैंने उसे कॉल किया. मुझे अब भी उसका नंबर याद नहीं आया था, पर जाने कैसे फोन लग गया. मेरी बात हुई उससे, हालाँकि ज्यादा देर तक नहीं, पर हुई. उसने मुझसे पूछा कि मैं बदल गई हूँ ना? फिर मेरा जवाब सुने बिना उसने बस इतना ही कहा कि वो मुझे काला घोडा फेस्टिवल में मिलेगी, उसे वहां कवरेज करना है.
मैं बस इतना ही सुनकर संतुष्ट हो गया. अब मुझे बिलकुल पसीना नहीं आ रहा था और सारी  हडबड़ाहट भी ख़तम हो गई थी. हालाँकि मुझे कोई अंदाजा नहीं था कि ये काला घोडा फेस्टिवल क्या चीज़ है, और कहाँ होता है.

इसके बाद मुझे बस इतना याद है कि मैं रोहित खिल्नानी के साथ बैठकर मिटटी के कुल्हड़ में मीठा दही पी रहा था. रोहित पहले एनडी टीवी मुंबई का रिपोर्टर था और आजकल कोई एंटरटेनमेंट सोल्यूशन कम्पनी चलाता है. उसने बताया था, कि काला घोडा फेस्टिवल में हर तरह के लोग आते हैं, वो भी जिन्हें लगता है कि वो बदल गए हैं, और वो भी जो जानते हैं कि बदल जाना एक कोरे ख़याल के सिवा कुछ नहीं है.